भक्ति रस
रस अर्थात आनंद रस काव्य कि आत्मा मानी गई है, जिस वस्तु को पढ़ कर देख कर आनन्द कि प्राप्ति हो उसे रस कहा जाता है।
रस नौ प्रकार के होते है----इन्हें नव रस कहा जाता है ,रस यानि भाव इसके दो भाग है 1-स्थायी भाव,2बिभाव ।
स्थायी भाव---प्रधान भाव-ऐसा भाव जो काव्य और नाटक में शुरू से अंत तक होता है, स्थायी भाव कहलाता है । स्थायी भावों कि संख्या नौ है । स्थायी भावों कि संख्या नौ मानी गई है,स्थायी भाव ही रस का आधार है,इसलिए इन्हें नव रस कहा जाता है। कुल ग्यारह रस माने गए है और आजकल मान्य है पर शास्त्रीयता के आधार पर रस केवल नौ है
रस-
श्रृंगार रस, हास्य रस,करुण रस,वीर रस, रोद्र रस , भयानक रस, बीभत्स रस,अद्भुत रस,शांत रस,वात्सल्य रस,भक्ति रस ।
भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में केवल आठ रस जोड़े है, क्योकि श्रृंगार रस के दायरे में उन्होंने भक्ति और वत्सल रस को भी रखा पर शांत रस काव्य और नाट्य विधा के अंतर्गत नहीं आता , इस कारण से स्थायी रस नौ ही माने जाने चाहिए।
सृंगार रस के अंतर्गत संभोग सृंगार है, जिसमे वात्सल्य भी रखा गया था और वियोग रस के साथ भक्ति रस को जोड़ा जाता था । क्योकि रति और प्रेम स्थायी भाव या रस हैं ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं, पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम् ॥,
भक्ति स्वयं एक रस है जो स्थायी भाव है-----श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण परीक्षित सा- कीर्तन कि परम्परा शुकदेव द्वारा दी गई थी, भगवान का नाम स्मरण प्रह्लाद कि भान्ति, और पादसेवन लक्ष्मी कि भांति, राजा पृथु कि भांति अर्चना, अक्र्र जी कि भांति, वंदन, हनुमान कि भांति अनुचर , अर्जुन की भांति संख्य और आत्मनिवेदन राजा बलि कि भांति ।
बाद में 15 से 17वी शताब्दी में सूफी संतो ने भक्ति में जगह बनाई ।
रस नौ प्रकार के होते है----इन्हें नव रस कहा जाता है ,रस यानि भाव इसके दो भाग है 1-स्थायी भाव,2बिभाव ।
स्थायी भाव---प्रधान भाव-ऐसा भाव जो काव्य और नाटक में शुरू से अंत तक होता है, स्थायी भाव कहलाता है । स्थायी भावों कि संख्या नौ है । स्थायी भावों कि संख्या नौ मानी गई है,स्थायी भाव ही रस का आधार है,इसलिए इन्हें नव रस कहा जाता है। कुल ग्यारह रस माने गए है और आजकल मान्य है पर शास्त्रीयता के आधार पर रस केवल नौ है
रस-
श्रृंगार रस, हास्य रस,करुण रस,वीर रस, रोद्र रस , भयानक रस, बीभत्स रस,अद्भुत रस,शांत रस,वात्सल्य रस,भक्ति रस ।
भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में केवल आठ रस जोड़े है, क्योकि श्रृंगार रस के दायरे में उन्होंने भक्ति और वत्सल रस को भी रखा पर शांत रस काव्य और नाट्य विधा के अंतर्गत नहीं आता , इस कारण से स्थायी रस नौ ही माने जाने चाहिए।
सृंगार रस के अंतर्गत संभोग सृंगार है, जिसमे वात्सल्य भी रखा गया था और वियोग रस के साथ भक्ति रस को जोड़ा जाता था । क्योकि रति और प्रेम स्थायी भाव या रस हैं ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं, पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम् ॥,
भक्ति स्वयं एक रस है जो स्थायी भाव है-----श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण परीक्षित सा- कीर्तन कि परम्परा शुकदेव द्वारा दी गई थी, भगवान का नाम स्मरण प्रह्लाद कि भान्ति, और पादसेवन लक्ष्मी कि भांति, राजा पृथु कि भांति अर्चना, अक्र्र जी कि भांति, वंदन, हनुमान कि भांति अनुचर , अर्जुन की भांति संख्य और आत्मनिवेदन राजा बलि कि भांति ।
श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्म निवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
बड़ी कठिन है डगर पनघट कि अब क्या भर लाऊं जमुना से मतकी
लाज़ राखो म्हारी राखो जी लाज लाज़ राखो मोरे घूँघट पटकी
मीरा----
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