Posts

Showing posts from March, 2016

सभी समाए --------भजन

Image
हरि देखूँ किस रूप में तुझको तुझ में सभी समाए गिरधर कि मीरा को देखूँ राधा कोई मोहे भाए.............. हरि देखूँ किस रूप में .............................2 देख लिया इस जग बंधन को अखियन नीर बहाए पीड भरे इस मन  कि दुखिया   जगत थाह ना पाए हरि देखूँ किस रूप में ........................................2 देख लिया है रूप सलोना छलिया मन भटकाए  "अरु" इस मन का भेद अनोखा चाकर बन रह जाए हरि देखूँ किस रूप में ...............................................2 आराधना राय "अरु"

अब काहे पछताए---------------भजन

बीती उमरिया हरि नाम संग ऋतु आए ऋतु जाए दीप जला कर प्रेम का कौन अँधेरा पाए नेह कि डोर बंधी तुझसे मन बावरा कहलाए जानी नहीं महिमा ईश्वर कि अब काहे पछताए हरि - हरि बोले मुख से अपने ईष्या द्वेष  समाए साची करनी कर के जग में सब का हित कर जाए  रोग लगा है  मोह का ऐसा  दंभी मन घबराए  सुमिरन कर हरि नाम का हिया को पिया ही  भाए "अरु" भजे हरि नाम को अब क्या समझे समझाए आराधना राय "अरु"

सावरिया- गीत

Image
मन ही मन में पिया पुकारूँ सावरिया सावरिया------- जिया धड़के होले होले जाए कित बावरिया............ छलके नीर मोती बन के  बोले रे पायलिया............. पीर  भर नयन भी कहती श्यामा  पढूॅ  पईयां ,,,,,,,,,,,,,,,, आराधना राय "अरु"

शिवः शिवम

कहते है यह स्तोत्र रावण ने शिव को प्रसंन करने के लिए रच डाला था, हिमालय पर्वत को एक स्थान से दुसरे स्थान ले जाने कि उत्कंठ इक्छा से रावण ने हिमालय को अपने बाहू बल का प्रयोग कर उठा लिया, पर शिव कहाँ कही और जाते उन्होंने बाएँ पैर का अंगूठे का दबाब बना कर रावण को ही हिमालय के बीच दबा दिया , तब कुछ पलों में उन्होंने  स्तोत्र रच डाला..................................शिव के प्रसन्न होते ही उन्हें मन चाहा वरदान प्राप्त हुआ...... जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌। डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥ जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी । विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि । धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥ धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर- स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे । कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥ जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे । मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भू

नमामीशमीशान

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् | निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेङहम् ||१|| निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् | करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोङहम् ||२|| तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम् | स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ||३|| चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् | मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||४|| प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् | त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेङहं भावानीपतिं भावगम्यम् ||५|| कलातिकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनान्ददाता पुरारी | चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||६|| न यावद उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् | न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ||७|| न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोङहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् | जरजन्मदुःखौ घतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ||८|| रुद्रष्टकमिदं प्रोक्तं विपेण हरतुष्

बेला पत्रिका में छपी कविता

सिया की पीर\                                    ( १ )           लालिमा भोर की रंजित ह्रदय कर जाती       नभ से सिन्धु जल भर बरसा कर जाती       शुचि हर घर का आँगन बुहार कर जाती       उल्लासित नगरी में राम-राज्य कहलाती                                   (२ )         सूर्य रधुवंश का भाल सहला कर जाता            मन मयूर सा ताल मिला कर जाता        स्वप्न हंस सिय का हिय बहला जाता        नव-कोंपल का बोध सिय को कर जाता                             (३ )       किसने ! सुयोग पर घात लगा उत्पात किया         हाय ! ईश्वर,मृत्यु सा वेदना का प्रहार किया       राम ने सीता को निष्कासित जिस घडी किया       मौन क्रन्दन कर हृदय ने सब कुछ सह लिया                                         ( ४ )     आह! विधि, सीता हरण रावण ने क्यों किया       रावण पुत्री  सम सिया को राहू ने ग्रस लिया         अम्बर ने मस्तक सिया को देख झुका लिया       धरती ने वरदहस्त सिया के शीश  पर दिया                                 (५ )         कौन से समाज के लिए रधुवर तय किया       सिय के आचरण पर मौन धारण तुमने कि

कैसी पभू तूने

कैसी पभू तूने कायनात बांधी-2 एक दिन के पीछे एक रात बांधी साथ - साथ बांधी 2 कैसी पभू तूने..... कभी थकते नहीं है वो घोड़े तूने सूरज के रथ में जो जोड़े-2 चाँद दूल्हा बना, व्याहने रजनी चला साथ चंदमा के तारों की बारात बांधी साथ साथ बांधी.... कैसी प्रभू तूने................. कैसी खूबी से बांधा ये मौसम सर्दी, गर्मी, बसंत और ग्रीषम साथ बादलों के बीच बरसात बांधी साथ - साथ बांधी कैसी प्रभू तूने................. पशू - पक्षी वो जलचर छुपाए तूने सब के है जोड़े बनाए,, राग और रागनी , नाग और नागनी साथ स्त्री के पुरुषों की जात बांधी साथ- साथ बांधी कैसी प्रभू तूने................. आराधना राय "अरु" तर्ज़-- आधा है चंद्रमा बात आधी..... 

मीरा कृष्ण की दीवानी पद

Image
आस में पी के सुध बुध गवांई मीरा कृष्ण की दीवानी कहलाई विरहन रैना रो - रो कर बिताई पीड मसि बना आसूँ से लिखाई मीरा जन्म श्याम संग बिताईं श्यामा संग जग में प्रीत बढाई मुख देख पिया का कह ना पाई सोवत- जागत श्याम रटन लगाई मछली जल बिन ना कही रह पाई "अरु" श्याम में जाकर मीरा समाई आराधना राय "अरु"

मेरे काव्यंश सिया की पीड से

Image
सिया की पीड़ ---------------------------------------------------- साक्षी ईश्वर रहा होगा जीवन प्रीत संग होगा सूर्य से चमकते भाल पे कर्म अडिग सा रहा होगा1 ------------------------------------------------ शीतल छाँव तले प्रीत - प्राण खिले स्वपन सुंदर मिले उल्लासित हो जिए जीवन क्यों ना जिए पुलकित हो आज प्रिय ------------------------------------------- मन्त्र-मुदित सिया हर्षाई राम मुख देख हि लजाई नयन कोर अश्रु छलकाए पुलकित हो समझ ना पाए आराधना राय "अरु" सिया की पीड के अंश -------------------------- ------------- स्नेह से पूरित सिया का  मधुमय स्वप्न साकार हुआ ।  लालिंमायुक्त रंजित सकल राम का ह्दय आकाश हुआ । प्रसंग--राम से प्रथम सीता वाटिका में मिली थी। राम को देख लक्ष्मी रूपा जान गई थी कि राम ही विष्णु है । स्वयंवर के पश्चात सिया के मनोभावों का वर्णन किया गया है सिया की पीड -------------------------- -------------------- -"प्रीत- प्रेम सब अकारथ जाए विपदा तुम्हारी सुनी ना जाए" प्रसंग------प्रजा के आरोपों के पश्चात् वाल्मिक आश्रम मे

गीत -

एक प्रेम रस का गीत-----50 साल पुराना गीत रे। मन संभल संभल पग धारियों झूल चुका तू प्रेम का झुला मन को वश मे करियो। रे। मन   इस जग मे नहीं अपना कोई परछाई से डारियो रे मन दौलत दुनियां कुटुंब कबीरा इन से मोह कबहू ना करियो प्रीत की बाती से दिया बनाकर सुमिरन करते रहियो रे मन संभल संभल पग धरियों। चढ़ती- ढलती धुप है जीवन मन को बस में कारियों रे मन संभल संभल पग   धरियों। आराधना राय "अरु" ज्ञानवती जी से सीखा गीत संगीत शिक्षिका 1960 में मेरी माँ  शारदा द्वारा गया गीत

गीत मैली गठरी

लाद चले मन की मैली गठरी कौन किसे समझाये  रे, हाय रे साफ किया तन साबुन धिस- धिस कोरा तन चमकाय रे ---हाय रे   मन मैला ,  मैला ही रखा कौन इसे दिखलाये रे .......हाय रे. कौन किसे समझाये रे, हाय रे..... चूनर रँग ली  सात रगों की छठा कितनी बिखराए रे..........हाय रे राग  रंग में भूले सब कुछ मन का मोल भुलाए रे, हाय रे कौन किसे समझाये रे, हाय रे  घाट घाट का पानी पी कर जोगी बन कर आए रे हाय रे.................    नाम लिया भगवान का कैसा निंदा कर के आए रे हाय रे मन मैला ना बदला "अरु "मोरा अपना धरम गवाएं रे हाय रे लाद चले मन की मैली गठरी कौन किसे समझाये  रे, हाय रे आराधना राय "अरु"

मीरा के पद

Image
दरद न जाण्यां कोय हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय। घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय। जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय। दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय। मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥ अब तो हरि नाम लौ लागी सब जग को यह माखनचोर, नाम धर्यो बैरागी। कहं छोडी वह मोहन मुरली, कहं छोडि सब गोपी। मूंड मुंडाई डोरी कहं बांधी, माथे मोहन टोपी। मातु जसुमति माखन कारन, बांध्यो जाको पांव। स्याम किशोर भये नव गोरा, चैतन्य तांको नांव। पीताम्बर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै। दास भक्त की दासी मीरा, रसना कृष्ण रटे॥  फागुन के दिन चार फागुन के दिन चार फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥ बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे। बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥ सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे। उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥

भक्ति रस

Image
रस अर्थात आनंद रस काव्य कि आत्मा मानी गई है, जिस वस्तु को पढ़ कर देख कर आनन्द कि प्राप्ति हो उसे रस कहा जाता है । रस नौ प्रकार के होते है----इन्हें नव रस कहा जाता है , रस यानि भाव इसके दो भाग है 1-स्थायी भाव,2बिभाव  । स्थायी भाव---प्रधान भाव-ऐसा भाव जो काव्य और नाटक में शुरू से अंत तक होता है, स्थायी भाव कहलाता है  ।  स्थायी भावों कि संख्या नौ है  । स्थायी भावों कि संख्या  नौ मानी गई है,स्थायी भाव ही रस का आधार है,इसलिए इन्हें नव रस कहा जाता है । कुल ग्यारह रस माने गए है और आजकल मान्य है पर शास्त्रीयता के आधार पर रस केवल  नौ  है रस- श्रृंगार रस, हास्य रस,करुण रस,वीर रस, रोद्र रस , भयानक रस, बीभत्स रस,अद्भुत रस,शांत रस,वात्सल्य रस,भक्ति रस  । भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में केवल आठ रस जोड़े है, क्योकि  श्रृंगार रस के दायरे में उन्होंने भक्ति और वत्सल रस को भी रखा पर शांत रस काव्य और नाट्य विधा के अंतर्गत नहीं आता , इस कारण से स्थायी रस  नौ ही माने जाने चाहिए ।  सृंगार रस के अंतर्गत संभोग सृंगार है, जिसमे वात्सल्य भी रखा गया था और वियोग रस के साथ भक्ति रस को जोड़ा जाता था  । क्योकि

प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा -----------भजन

Image
प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा मीरा राधा श्याम के जैसा रंग गई उसकी चुनरी फीकी रोग लगा क्या प्रेम के जैसा प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा...................2 फागुन बीता उसका रीता ढल गया प्रेम दिए के जैसा रोज़ पिरोता माला के मोती हँस करबीज़ भविष्य के बोता प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा...................2 नयनों में जब श्यामा मुस्काए कठिन है प्रीत को ऐसे ही जीना कोई कजरा बन राधा को भाए राधा का मन जब श्याम लीना प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा...................2 गंगा जल कोई नयनों से पीता बिष को रोज़ ही अधरों से पीता मीरा भई जग से कैसी बेगानी प्रेम का रस पी जग उसने जीता प्रीत ने बाँधा बंधन कैसा...................2 भई दोनों श्यामा संग दीवानी पीड सह गई विछोह की कैसी तज गई लाज़ गिरघर कि राधा मीरा के उर बसे श्यामा हमजोली आराधना राय "अरु"

अर्चना- ईश्वर की

Image
                                  प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी- प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी- जल बिन हो गई मीन उदासी दरस ना पा कर रही मैं प्यासी तुम्हरे कारण भए हम बनवासी तेरे बिन प्रभू कुछ कर ना पाती--2 प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी-2 नयनों में  कजरा नेह का डारूँ अश्रु की माला बना गले में डारूँ भक्ति  से पूरित लेप से सावरूँ ज्ञान का दीप जला मैं पुकारूँ प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी-2 आस- निराश का खेल रचाया पत्थर पर कहो शीशा चटकाया. काज़ अनोखा जग में अपनाया परहित कर जीवन  रूप सजाया प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी-2......... सदा करूँ मैं आस तिहारी ओ गिरधर मन के बिहारी प्रभू तुझ पर जीवन हूँ हारी नाथ कहूँ क्या अरु सब वारी प्रभू तेरे चरणों की भई मैं दासी-2......... आराधना राय "अरु"

गणपति वंदना

Image
आधुनिक युग में भक्ति को ही मुक्ति का द्वार बताया गया है, आज श्री गणेश का मंगलाचार करते हुए  भजनों के संग्रह का शुभारम्भ करते है। ॐ गंग गणपते नमः स्वीकार करो मेरा यह वंदन-  हे ज्ञानेश्वर ,सुनों जग  क्रन्दन। -2 जन्म मरण के है सब बंधन नाथ  हरो मेरे भी क्रंदन । बुधि -दाता,  हो तूम जग निर्माता.....। हर जन द्वार तिहारे आता ।।2 जन्म -जन्म के दुःख बिसराता । कर्म पूर्ण उसका हो जाता नाम लेत जो कार्य कर जाता। कष्ट निवारो , संसार सवारों हे प्राणेश्वर, काज़ सवारों । स्वीकार करो मेरा यह वंदन-  हे ज्ञानेश्वर ,सुनों जग  क्रन्दन । ।  2 शील , स्नेह विवेक के तूम अनुरागी दया सिन्धु, हम तेरे अनुगामी । । बिगाड़े काज़ सफ़ल तूम करते, सृष्टि को अपना बल देते। है अतुलित प्रभू धैर्य तुम्हारा, शरण भक्ति को तूम हो सहारा । । रूप मनोहर तुम्हारा स्वामी रिधि- सिधि के तूम हो स्वामी। स्वीकार करो मेरा यह वंदन-  हे ज्ञानेश्वर ,सुनों जग  क्रन्दन। -2 आराधना राय "अरु"